अन्नं वै प्राणा:

अन्नं वै प्राणा: (८) - (३)

Posted
10 वर्ष ago
शेवटचा प्रतिसाद
10 वर्ष ago

हरदी कहाये रंगाले
अपने रंग रंगाले लालना
रंगबों देवकी के चुनरी
अपने रंग रंगाले होय

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अन्नं वै प्राणा: (८) - (२)

Posted
12 वर्ष ago
शेवटचा प्रतिसाद
11 वर्ष ago

ह्या विशाल पृथ्वीचे असे कितीसे आहे मला ज्ञान?
देशोदेशीची किती नगरे - किती राजधान्या...
माणसाची किती कर्तृत्वे - किती नद्या, किती सागर, किती वाळवंटे,
किती अज्ञात जीव, किती अनोळखी वृक्ष...
कितीतरी राहून गेले आहे पाहायचे
विशाल विश्वाचे हे आयोजन.
एका क्षुद्र कोपर्‍यात गुंतून राहिलेय माझे मन.
त्या क्षोभामुळेच वाचत असतो प्रवासवर्णने
अक्षय उत्साहाने
जिथे घडते एखादे चित्रमय दर्शन -
लगेच घेतो टिपून.
माझ्या ज्ञानातल्या उणिवा काढतो भरून
अशा त्या भीक मागून मिळवलेल्या धनातून.
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अन्नं वै प्राणा: (८) - (१)

Posted
12 वर्ष ago
शेवटचा प्रतिसाद
11 वर्ष ago

ওগো, তুমি কোথা যাও কোন্‌ বিদেশে?
বারেক ভিড়াও তরী কূলেতে এসে।
যেয়ো যেথা যেতে চাও,
যারে খুশি তারে দাও—
শুধু তুমি নিয়ে যাও
ক্ষণিক হেসে
আমার সোনার ধান কূলেতে এসে॥ - সোনার তরী (রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর)

Oh to what foreign land do you sail?
Come to the bank and moor your boat for a while.
Go where you want to, give where you care to,
But come to the bank a moment, show your smile -
Take away my golden paddy when you sail. - The Golden Boat (Rabindranath Tagore)
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अन्नं वै प्राणा: (६)

Posted
13 वर्ष ago
शेवटचा प्रतिसाद
13 वर्ष ago

शूरवीर पाय घट्ट रोवून उभे,
झाडंही त्यांच्याकडून उभं राहायला शिकली - अकबरनामा

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