२०३ डिस्को, बुधवार पेठ, पुणे २ - क्रमशः - भाग ९

Submitted by बेफ़िकीर on 11 June, 2010 - 06:02

गोपी आणि शालन यांनी घेतलेले बौद्धिक अत्यंत आश्चर्यकारक होते. असे बौद्धिक तेच घेऊ शकत होते आणि ते समजण्यासाठी साहूसारखाच मुलगा योग्य होता. सुसंस्कृत समाजात वावरणार्‍या अन मोठे होणार्‍या मुलांना ते बौद्धिक म्हणजे एक जगाबाबतची शिवीगाळयुक्त घृणास्पद भडास काढणे वाटले असते. किंवा भांडण किंवा झापणे! पण ते बौद्धिक होते. अत्यंत मौलिक!

झालेल्या प्रकाराने ललिता साहूशी बोलेनाशीच झाली होती. तो तिच्या हाताबाहेर गेलेला आहे ही तिची भावना दृढ झालेली होती. ती केवळ डिस्कोचे कामकाज नीट व्हावे या गोष्टीत मन रमवू लागलेली होती. दोन दिवस झाले तरी आई बोलत नाही म्हणून साहू शालनकडे आला. ललिता त्यावेळेस 'जमाईराजा' या इमारतीतील एका मौसीकडे सहज गेलेली होती आणि किमान दोन तास येणार नव्हती. सकाळचे अकरा साडे अकरा झालेले असल्याने बुधवार पेठेची मध्यरात्र होती. शालन निवांत बसलेली होती एकटीच! बाकी सगळ्या मुली बाहेर कॉमन खोलीत पेंगुळून झोपलेल्या तरी होत्या किंवा आपापल्या कंपार्टमेंटमधे तरी होत्या.

शालन - क्या रे?
साहू - ....
शालन - क्या चाहिये?
साहू - मां किधर है?

आई कुठे आहे हे माहीत असूनही साहूने हा प्रश्न विचारला होता.

शालन - सामने गयी है.. क्युं?
साहू - वो.. बातही नही करती मुझसे...
शालन - हां .. तो?
साहू - क्युं.. नही करती बात?
शालन - तेरेको क्या फरक पडता है?
साहू - बुरा लगता है..
शालन - क्युं?
साहू - वो.. अकेलीही है मेरेलिये यहांपर.. और.. वोही बात नही करेगी तो..??

आता शालन साहूकडे वळून बसली. तीव्र नजरेने त्याच्याकडे पाहात मात्र उच्चार अतिशय शांत ठेवत म्हणाली..

शालन - वो अकेलीही है तेरी? तो मेरे पास किसलिये आया है?
साहू - नही.. मतलब.. तुम भी हो..
शालन - मै क्या हूं? अं? .. बोल? क्या हूं मै?? तेरी मां हूं?
साहू - ......
शालन - मां हूं मै? मा कमरेमे कपडे उतारके खडी रहेगी तो उस कमरेमे जाता है तू? मै मां हूं??
साहू - ....
शालन - शरम आती है?
साहू - उसमे .. मेरी क्या गलती.. तुम.. उस कमरेमे तुम थी ये.. मुझे.. मालूमही..
शालन - फिर भी.. मैने फिर बुलानेके बाद आके रुकगया था ना मेरे सामने?? मजा देखनेको??
साहू - .....
शालन - देख साहू.. मै तेरी कुछ भी नही हूं.. यहां.. कोई किसीका नही होता..
साहू - .......
शालन - यहा एकही रिश्ता होता है.. आदमी.. और औरत..

साहूला या वयात हे कशाला समजायला पाहिजे वगैरे विचार सुचायला बुधवार पेठ म्हणजे वेदशात्रोत्तेजक सभा नव्हती.

साहू - लेकिन.. वो बातही नही करती...
शालन - वो अगर तेरेको बोलेगी.. के दलाली मत कर... सुनता है तू??
साहू - ....
शालन - वो तुझे बोलती है.. इधर उधर मत जा.. गोपी का हाथ मत छोड.. सुनता है तू??
साहू - लेकिन..
शालन - लेकिन? क्या लेकिन? मुंबई विहार और गीता विहारमे जाने जितना बडा होहीगया है ना?
साहू - गलती होगयी..
शालन - मुझे बता रहा है?? मुझेही नंगा देखना चाहता है और गलती भी कुबूल मेरेही सामने?
साहू - ......
शालन - मां के सामने गलती कुबूल करने मे शरम आती है नां??
साहू - .....
शालन - शरम आती है नां??
साहू - वैसा नही.. वो.. रोयेगी.. खुदको कुछ करलेगी..
शालन - तो तेरेको क्या फरक पडता है...एक धंदेवालीका रोना भी कोई रोना होता है..
साहू - (तीव्र स्वरात) धंदेवाली मत कहो मां को..
शालन - धंदेवालीही नही है वो.. हमसे धंदा करवानेवाली भी है..
साहू - तुम .. ऐसी बाते मत करो..
शालन - क्युं? उस दिन.. तुनेही ग्राहक लाया ना अपनी मां के लिये.. तब क्युं नही लगा तुझे.. के मै अपनी मांसे धंदा करवारहा हूं..

तापलेल्या शिसासारखे हे शब्द साहूच्या कानात शिरले. त्याच्या वयाला न शोभणारी गोष्ट केली त्याने. खाडकन हात उचलून शालनवर उगारला. शालनने तो हवेतल्या हेवत धरला.

शालन - मुझे मारता है?? मुझे मारेगा?
साहू - .....
शालन - शरम नही आती मांसे धंदा करवाके उसी पैसेसे पेट भरते हुवे?? शरम नही आती यहांकी लडकियोंके पास आदमी भेजके उस पैसेसे ऐष करते हुवे?? मुझे मारता है??
साहू - मै.. फिर मै क्या करुंगा?? मेरा तो स्कूल भी बंद करदिया मां ने..
शालन - मां ने स्कूल बंद करदिया? मां ने? एक बार सिर्फ चाय पीने रोड पे गया तो अमजदने हिजडा बनाके यहां भेजा तुझे.. स्कूल जायेगा तो लाशभी वापस नही आयेगी तेरी..
साहू - तो.. क्या करूं मै??
शालन - तू क्या करेगा ये तो औरही बात है.. पहले ये बात समझले.. तेरी मां यहां धंदा करती है इसलिये तू खाना खा सकता है.. तेरी आमदनीमे तो तुझे दो वक्त की रोटी नही मिलेगी..
साहू - मुझे .. अच्छा नही लगता मां का ये सब..
शालन - अच्छा?? तो ले जा उसको राऊरकेला? है पैसा टिकटका जेबमे??
साहू - लेकिन.. ये सब .. क्यु हुवा हमारे साथ...

इथे बौद्धिक सुरू झाले. शालनने कीव येऊन साहूला जवळ घेतले. दोन थेंब नाही म्हंटले तरी तिच्याही डोळ्यात आलेच. साहूला शेजारी बसवून त्याच्या पाठीवर हात ठेवून शालन भिंतीकडे बघत बोलू लागली. साहू सुरुवातीला तिच्या निकट बसल्याने तिच्या अंगाकडे कुतुहलाने पाहू लागला. पण जसजशी शालनच्या बोलण्याला धार येऊ लागली.. साहूचे पूर्ण लक्ष तिच्या बोलण्याकडे लागले. वेळ अशी आली की शालनचे बोलणे संपले तेव्हा जवळपास चार मुली आजूबाजूला बसलेल्या होत्या. शालनने साहूला जे सांगीतले.. ते तीच सांगू शकत होती आणि... साहूच ऐकू शकत होता..

शालन - सोला सालकी थी तब शादी हुवी. ठाणेमे! लडका था अलिबाग का! मै ससुराल गयी. कुछ दिन तो नयी दुल्हन होनेसे खूब लाड प्यार मिला. एक देवर था.. वो स्कूलमे था.. चार छे महिनोंके बाद ... दहेजके उपर झगडे होने लगे.. उसके बाद.. बच्चा नही होनेपर बहुत डांटने लगे.. कभी कभी मारनेभी लगे.. मेरी मां अकेली थी.. बुढी.. वो ले जा नही सकती थी मुझे.. एक बार.. बडा झगडा खडा हुवा.. पतीने मुझे बहोत मारा.. मैने.. बोलते बोलते बोल दिया.. आप लोगोने मुझे फसाया है.. मेरा पती मर्द नही है... सांस और ससूर को धक्का लगा.. उन्हे ये मालूमही नही था.. उन्होने फसाया नही था.. लेकिन.. और वो देवर.. उसके सामनेही बोल दिया था मैने.. वो छोटा था.. सांसको लगा के वो गलीके लडकोंके साथ खेलता वेलता है.. गलतीसे बोलदेगा.. उसे बहुत डांटां.. वो डरके मान गया की ये बात नही बोलेगा... लेकिन.. कुछ दिनो बाद सांस मेरे पास आयी.. बोली.. तुझे .. बच्चा चाहिये.. तो .. ससुरके पास सोने जा.. मैने बहुत बोला सांस को.. लेकिन.. मेरी बात कौन सुनेगा.. फिर मारा मुझे.. जबरदस्ती उस हरामी बुढ्ढेके पास सुलाया... रातभर मै.. घीन आ रही थी मुझे.. अपनेपरही.. खुदखुशी करना चाहती थी मै.. मगर.. एक पडौसी आदमीने और उसकी औरतने बहोत समझाया.. अपने पैरोंपर खडी होनेको बोला.. मै कुछ काम मिलता है क्या ये देखने लगगयी... लेकिन.. ससूर... मेरा ससुर एक हैवान था.. उसने किसीको घरमे बुलाके मुझे... सीधा बेचदिया.. पाच लोग आये थे.. खुद ससुर भी उस जीपमे बैठगया.. आजूबाजूके लोगोंको.. ससुर गाडी मे है.. ये देखके.. शक नही हुवा... बीचमे ससुर उतरगया.. मै चिल्लारही थी.. तो मुंहमे कपडा डाल दिया.. किसी फार्महाऊसपर लेगये थे... तेरी मां.. रेश्मा.. आजतक उसने ये सहा नही है.. यहांकी.. शायद किसी लडकीने ये सहा नही होगा.. मैने.. उस रात वो पाच लोगोंके साथ... साहू.. तू जो सुन रहा है.. सिर्फ अल्फाज याद रख बेटा.. फिर.. अगली सुबह.. मेरेको घाटकोपर लेके गये.. सौदा होगया.. लेकिन.. वहांसे मै.. भाग निकली.. किसीको कुछ पता चलनेसे पहले पुलीस स्टेशनमे गयी..

दिनभर पुलीसवालोंने नाटक किया! रातमे एक साब आया. उसने.. मुझे भाग जानेकी सलाह दी.. हाथमे सौ रुपये रखदिये.. मै मां के पास.. अपने मायके चली गयी.. उसे कुछभी नही बताया.. लेकिन.. एकही हफ्तेमे.. वही लोग मुझे फिर उठाले गये.. मेरे बस्तीमे एक मरदमे वो *** नही थी के मुझे बचाये.. और.. मै ज्योत्स्नासे शालन बन गयी.. घाटकोपरसे तीन सालके बाद पुना आगयी.. गंगाबाईने खरीदा था मुझे.. यहांसे भागनेकी तमन्नाही नही रही थी... इस्माईलकी शिकार तो कई बार हुवी मै..

फिर.. एक ऐसा टायम आया के.. शालन डिस्कोकी हिरॉईन होगयी.. उस वक्तके डेढ डेढ हजार मे बोली लगगयी.. ये जो मांढरेसेठ आता है ना साहू.. ये यहा आता था तो सिर्फ शालनके लिये..

और वो भी टायम गया.. अब .. डेढसौ भी बहोत है.. कोई सौ देता .. कोई सव्वासो.. तो कोई उधार..

शालन.. एक अच्छे घरकी लडकी.. तेरी मां रेश्मा.. एक अच्छे घरकी लडकी.. ये..ये सामने बैठी हुवी रोहिणी.. ये हमसे भी अच्छे घरकी थी..

साहू... जिंदगी मे एक बातपे हमेश गौर कर बेटा... एक भी मां ऐसी नही होती जो.. बेटेका बुरा चाहे.. बेटा मां की जिंदगी होता है.. तेरी मा अगर धंदा करती है तो सिर्फ इसलिये की उसके भागसे उसे बुरे लोग मिलगये.. तेरा बाप चल बसा.. अगर तू नही होता साहू.. तो रेश्मा कबकी खुदखुशी करचुकी होती.. और एक बात.. मुझे बेटा नही है.. तो मै खुदखुशी क्युं नही करती ऐसे पुछेगा तू.. मुझे डर लगता है.. बदनपर कई बार रॉकेल डाला है मैने खुदके.. लेकिन.. तीली जलाके फेकनेकी हिम्मत.. नही हुवी साहू.. एक बार भी नही हुवी.. कई बार लक्ष्मी रोडके किसी कार या ट्रकके नीचे जानेके लिये घंटो वहा खडी रही हूं मै... नही होती हिम्मत..

साहू.. ये इलाका है बुधवार पेठ.. सगी मां के लिये ग्राहक तो तू इसी उमरमे लाचुका है.. सगी मां को मारने वाले यहां कई होके गये है.. और .. हम लोग यहा ये काम करते है.. इसलिये अच्छे घरकी औरते जब लक्ष्मी रोडसे जाती है ना.. तब उनकी तरफ देखके कोई सीठी नही बजाता.. उन्हे कोई खीचके अंदर नही ले आता.. आरामसे हसते हसते जिंदगी गुजार लेती है वो.. इस शहरकी अब्रू संभालनेका काम करती है तेरी मां.. और हम जैसी औरते..

तुझे क्या लगता है?? हस हसके किसी ग्राहकके साथ तेरी मां अंदर कमरेमे जाती है तो मजेमे होती है?? इक इक पल मौत होती रहती है.. सिर्फ.. जिंदा लगते है हमलोग.. दिखनेमे जिंदा लगते है..

क्युं करती है तेरी मां ये सब? यही पुछ रहा था ना? तो सुनले... मर्दका औरतके साथ रिश्ता आता है तब बच्चा पैदा होता है.. तू.. ये लडकिया.. दुनियाका हर आदमी वैसेही पैदा हुवा है.. लेकिन जब वो रिश्ता अपने पतीसे होता है औरतका.. तो दुनिया उसे शादी कहती है.. जब गैरमर्दके साथ होता है.. तो दुनिया उसे लफडा कहती है.. जब दो से ज्यादा मर्दोंके साथ होता है.. तो दुनिया उसे कुलटा कहती है.. और जब.. सेकडोंसे होता है.. तब उसे धंदेवाली बोलते है.. जैसे रेश्मा.. शालन.. ये संगीता... ऐसे..

और औरत चाहती नही है... के वो वेश्या बने.. उसे बनाया जाता है.. औरत कमजोर होती है.. इसका फायदा उठाके भगाके या उठाके लाते है यहांपर उसे.. जिस्मका ब्योपार होता है यहांपर.. तेरी मां को उस वक्त ग्यारा हजारमे बेचा था भानूने गंगाबाईको.. वो ग्यारा हजार चार महिनोंमे वसूल होगये थे.. उसके बाद मुनाफाही मुनाफा..

औरत को वेश्या बनानेवालेभी मर्द है.. और उसके पास आके सोनेवालेभी मर्द.. पती भी मर्द.. भाई भी मर्द.. बाप भी मर्द.. ससूर भी मर्द.. और... तेरे जैसा दलाल भी एक मर्द होता है... बिकती है सिर्फ औरत.. तेरे बापने पैसा नही रख्खा था और मरगया.. ना तेरा कुसूर ना रेश्मा का.. तुझे पालनेके लिये उसने नौकरी की और वहीपर भानूने उसको फसाया.. और यहां आके बेच दिया.. लेकिन.. आजतक उसने तुझे अपनेसे दूर नही किया... खुद खाना नही खाया होगा.. लेकिन तुझे खिलायेबगैर सोयी नही वो.. पाच सालका था तू सिर्फ.. दस साल होगये तुझे यहां.. एक रात ऐसी बता जब तू भूखा सोया है..एक रात बता मुझे.. अपने आपको किसीभी गंदे नाले के कीडेके सामने पेश करकरके.. खुदका बदन सडते हुवे भी हसहसके.. तुझे रोटी खिलायी है रेश्माने.. और तू कहता है तुझे उसका काम पसंद नही है.. तुझे पताही नही के कितनी बार वो खुद भूखी सोयी है.. जब उससे सहा नही गया.. जब शरीफाने दो दिनतक भूखा रख्खा तो रो रो के उसने तुझे दलाली करनेकी इजाजत देदी.. आखिर वो भी इन्सान है.. और अगर जीना चाहती भी है तो सिर्फ तेरे लिये जीना चाहती है.. क्या वो किसी और दलालको नही बोलसकती थी ग्राहक लानेके लिये.. बोल सकती थी.. लेकिन शरीफाने सबको बोलदिया था.. मुंगूस.. भोला.. सबको बोलरख्खा था.. रेश्माके लिये ग्राहक नही लाना.. क्या करेगी वो?? बोल क्या करेगी?? दो घंटे तुझे खानेको नही मिला तो तू आजभी रोनी सूरत करके इधर उधर मांके पिछे बहगता है.. तुझे पता है?? इस्माईलने खुद मुझे दोन दिनतक पानी नही दिया था.. मरगया *****.. लेकिन उसका भी क्या कुसूर.. ये गंगाबाईने बोला था.. और.. अब बुढी होगयी है तो हमलोग गंगाबाईको गाली नही देते.. उसको ठीकसे रखते है.. पता है क्युं?? क्युं की तेरे मां ने बोला है ऐसे करनेको.. उसने बोला है हर किसीको प्यार मिलना चाहिये डिस्कोपर.. कोई रोयेगा नही आयेंदा.. तेरी मां ने बोला है..

तेरी मां यहां नही होती... अगर तुम लोग अभीभी वेलकमपे होते... तो अबतक संगीता यहांकी मेन होजाती थी और मै तो कबकी गंगाबाईका जीना हराम करदेती थी.. तेरी मां ने हर लडकीको बचाया.. प्यार दिलवाया औरोंसे.. तू कहता है तुझे अच्छा नही लगता उसका धंदा करना.. तो अब बडा होगया है ना तू?? तो दिखा उसको यहांसे निकालके?? तेरा डेढ हजार जमा हुवा है मेरे पास.. वो मै तुझे दे देती हूं.. आजके आज भगाके दिखा.. कहा जायेगा? राऊरकेला जायेगा? फिरसे कई भानू मिलेंगे तेरी मा को.. फिरसे भगायेंगे उसे.. अगर भगायेंगे नही तो वही नौचके खतम करदेंगे..

बुधवार पेठ है साहू ये.. यहापर अगर औरत दिखाई दे तो समझले के वो धंदेवाली है.. और अगर मर्द दिखाई दे तो समझले के या तो ग्राहक या दलाल..

जायेगा स्कूलमे?? तिसरे दिन बच्चे आपसमे बोलेंगे.. ये धंदेवाली का बच्चा है.. जीना हराम करदेंगे तेरा.. उनके मां बाप आकर टीचर को बोलेंगे के इस बच्चेको स्कूलसे हटाओ.. नही तो हमारे बच्चे बिगडजायेंगे.. हम ऐसेमे नही भेजेंगे हमारे बच्चोंकॉ स्कूलमे.. तुझे हकालदेंगे फिर.. ये जो लोग होते है साहू.. इनमेसे कई तो रातमे यही आते है.. लेकिन किसी संस्थाके आदमी बनकर जब आयेंगे तो हमहीसे राखी बंधवाते है.. राखी बंधवाते हुवे भी हमारी तरफ उसी नजरसे देखते रहते है.. लेकिन अपने बच्चोंकॉ उस स्कूलमे नही भेजना चाहते जहांपर तुमजैसे गंदे बच्चे पढते हो.. हां.. गंदे.. हमारा नाम है गंदगी.. पूना शहर की गंदगी.. अब जा.. इसके बाद अपनी मां को धंदेवाली समझ जरूर.. लेकिन उसे ये एहसास कभी मत दे की तू उसे धंदेवाली समझता है.. मां है तेरी वो.. मां....!!!!!

शालनचे स्वतःचे डोळे कोरडे ठण्ण होते. समोरच्या चार मुलींचे डोळे मात्र पाणावले होते. आणि साहूचे डोळे??

साहूचे डोळे लागले होते दारात उभ्या असलेल्या आईच्या डोळ्यांकडे.. ललिता केव्हाच आली होती... शालनचे ओघवते बोलणे आणि त्यातून बाहेर पडणारे तत्वज्ञान आत्ताच आपल्या मुलाला समजू नये असा विचारही तिच्या मनात येत नव्हता... ती फक्त लक्षपुर्वक ऐकत होती शालनला.. आणि काही गोष्टी तर तिलाही नवीनच समजल्या होत्या.

साहू वेगात जाऊन आईला बिलगले.

आई आणि मुलाच्या नात्यामधे शब्दात माफी मागण्याची गरज कुठे असते?

साहूचे डोके ललिताच्या खांद्यावर टेकले आणि ललिताची दोन गरम आसवे साहूच्या खांद्यावर टपकली..

झाली दिलजमाई... नो धंदेवाली आई.. नो दलाल मुलगा.. फक्त आई... आणि मुलगा..

"जा बाहर.. खेल" ! ललिताने उच्चारलेल्या या शब्दांनंतर तो संवाद संपला. साहू जड पावलांनी बाहेर गेला. शालन अन सगळ्याच जणी आता झोपणार होत्या. ललिताही!

फक्त.. साहू खाली जिथे गेला होता तिथे.. गोपी मात्र अजूनही होताच..

गोपी.. एक तीस वर्षांचा तृतीयपंथीय! डिस्कोच्या आसपास गंगाबाईने खास 'तो चॉईस' असलेल्या लोकांसाठी ठेवलेला गोपी! 'डिस्कोवर' मात्र नाही! गेली कित्येक वर्षं.. निदान दहा वर्षे तरी साहूच बघत होता.. तिथेच होता..

गोपी आज एका गल्लीतल्याच वाड्याच्या पायरीवर बसून उदासपणे जमीनीकडे पाहात हातात येईल तो खडा एका मोठ्या दगडावर फेकून मारत होता. साहू त्याच्या शेजारी बसला तेव्हा गोपी आपल्या विचारांमधून बाहेर आला.

गोपीचे निर्मळ हास्य साहूला नेहमीच आवडायचे. मात्र त्याला गोपीची वेशभुषा अजिबात पसंत नव्हती. त्याने गोपीला कधीच त्याबद्दल विचारले नव्हते. 'छक्का' असे गोपीला संबोधण्यात येते एवढे त्याने बरेच वेळा पाहिलेले होते. कालच रात्री कबीरने आपल्याला नेमके असेच बनवले होते हे त्याला आठवले. स्वतःचीच शिसारी आली त्याला.

गोपी - क्या रे? सोया नही?
साहू - मै कहा दिनमे सोता हूं?

रोज या वेळेला गोपी झोपत असल्यामुळे साहू या वेळेला झोपतच नाही ही माहिती गोपीला बर्‍यापैकी नवीन होती.

गोपी - कभी नही सोता दोपहरमे?
साहू - अंहं!
गोपी - ऐसा क्युं लग रहा है?? रोया क्या?
साहू - नही..
गोपी - आजभी कोई नही आया..

गोपीने आणखीन एक खडा फेकताना हे वाक्य उच्चारले आणि जवळ बसलेल्या साहूने गोपीकडे नीट निरखून पाहिले. नेहमीचीच पिवळी साडी! लिपस्टिक, गालावर लाली, मिशीची लव दिसू नये म्हणून भरपूर पावडर चोपडलेली! तब्येत कृश! मात्र.. रापलेली त्वचा मात्र सरळ सांगत होती... ही स्त्री नाही.. डोळ्यात राकट पुरुषी भाव, भुवया कोरलेल्या, डोळ्यांमधील भाव युगानुयुगांच्या नैराश्याला सामावणारे जणू!.... गोपी!

साहू - तुम लोग.. तुम लोग ऐसे क्युं.. होते हो???

क्षणभरच थबकला गोपी! कधीतरी ही वेळ येणारच होती. आज आली. साहू हा प्रश्न एक दिवस विचारणारच होता. आपल्यालाच किंवा कुणाला इतरांना!

गोपी - ऐसे म्हणजे?
साहू - मतलब.. मर्द होते हो या औरत?
गोपी - कुछभी... कुछभी समझसकते है.. जरूरतपे है..
साहू - मतलब?
गोपी - किसी मर्दको औरत चाहिये और पैसा नही है तो मेरेको औरत समझलेता है..
साहू - समझलेता है मतलब?
गोपी - समझलेता है... और किसी मर्दको मर्दही चाहिये तो वो बोलता है के मर्द चाहिये..
साहू - तुम लोग होते कौन हो लेकिन?
गोपी - ये लोग लोग क्या है? सब हिजडे एक जैसे नही होते..
साहू - हिजडे?
गोपी - हं!
साहू - एक जैसे नही होते मतलब??
गोपी - मतलब.. कोई जनमसे होता है.. उसको दोनो चीजे आधी आधी एकसाथ हो सकती है..
साहू - ... क्या???
गोपी - बहुतोंको समझा जाता है.. लडकी समझा जाता है और लडका होता है..या उलटा..
साहू - समझा जाता है??
गोपी - हं.. ! कई बार जबरन बनाया जाता है.. धंदे के लिये...
साहू - तुम...
गोपी - मै मर्द हूं..
साहू - तो.. ऐसे कपडे??
गोपी - खुदही पहनलेता हूं.. अच्छा लगता है..
साहू - औरतके कपडे.. अच्छा लगता है?? क्या अच्छा लगता है उसमे? शरम नही आती?
गोपी - आती थी! अठराह साल पहले आती थी..
साहू - मतलब?
गोपी - गांवमे .. चार आदमियोंने.. वही किया मेरे साथ.. जो औरतके साथ करते है..
साहू - ऐसे कैसे?
गोपी - *********

साहू शहारला.

साहू - ये.. ये सब... डरावना है.. ये होता है??
गोपी - होता है नही.. हुवा है.. मेरे साथ.. हररोज होता है..
साहू - लेकिन.. क्युं सहते हो??
गोपी - वेलकममे बेचा था मुझे.. पहले..
साहू - वेलकम? .. कब?
गोपी - बीस साल होगये..
साहू - तो?
गोपी - पाच सालमे अमजद और शरीफाने मेरा हाल इतना बदतर किया के मै.. भाग आयी..
साहू - ये.. आयी .. गयी.. ऐसा क्युं बोलते हो?
गोपी - आदत!
साहू - क्या किया उन लोगोंने?
गोपी - जलाना, भूखा रखना.. मारना.. पेटपे लाथ मारते थे और मजाक समझके हसते थे.. रोजाना...
साहू - अमजदभाई?
गोपी - अमजद तो ***** है.. वो तो ... जाने दे...
साहू - कौन लाथ मारता था??
गोपी - मुंगूस और कबीर
साहू - तुम नही मारते थे उन्हे??
गोपी - अंहं! .. हिम्मत नही होती..
साहू - मां को भी मारा... बहुत मारा है उन लोगोंने..
गोपी - मालूम है.. एक दिन आयेगा.. पछतायेंगे अपने किये पर....

तो 'एक दिन' आपल्या शेजारी बसलेल्या साहू नावाच्या वेष्टनातील महास्फोटकामुळेच येणार आहे हे गोपीला माहीत असते तर तो पुढचे आयुष्य अतीशय आनंदात जगला असता.

साहू - पुलीस पकडती नही ऐसोंको??
गोपी - नही.. रिश्वत लेती है.. पैसे लेती है..
साहू - क्युं?
गोपी - बैट्।अके पैसा मिलता है उस जात को साहू.. हम जैसा नही है उनका...
साहू - लेकिन फिर.. उलीस चाहिये किसलिये??
गोपी - दिखावा कौन करेगा फिर??
साहू - तुम.. रोज ये एकही साडी क्युं पहनते हो??
गोपी - परवडता नही.. मेरा रेट बहुत कम होता है..औरतके जैसा नही होता..
साहू - क्युं?
गोपी - सबकुछ अभी नही समझेगा तू..
साहू - भाग क्युं नही जाते?
गोपी - दिल लगने लगगया है अब इस इलाकेसे.. कौन है बाहरकी दुनियामे मेरा??
साहू - गांवमे??
गोपी - गावमे सबको मालूम है.. मै छक्का है करके..
साहू - कही और?
गोपी - कही और.. ऐ मेरे दिल कही और चल.. हा हा हा हा... बुधवार पेठ जितना .. प्यार और कही नही मिलता साहू.. लगनेमे लगता है.. कि ये गंदी जगह है.. लेकिन.. इस गलीमे आजतक एक दिन भी मै भूखी नही रही.. इन्सानियत यहीपर है.. दुनियामे नही है..

फार वेगवेगळी तत्वज्ञाने होती शालन अन गोपीची!

साहू - कैसे?
गोपी - गयी थी एक बार भागकर.. तालिया बजा बजाकर भीख मांगने लगी.. भीख अमिलती भी थी! लेकिन.. कोई भी आसपास भटकनेभी नही देता.. हर इक आंखमे नफरत.. सिर्फ नफरत.. और यहां?? यहां हर लडकी जानती है मै मरद हूं! लेकिन मै ऐसा क्युं हूं ये भी जानती है.. तरस आता है पहले उनको मुझपर.. बादमे हमलोग.. दोस्त बनजाते है.. हसते खेलते है.. बाहरकी दुनियामे मुझे आसरा नही है साहू.. सिर्फ यहांपर है..

साहू - तो फिर.. तुम जैसे सब.. यहीं क्युं नही.. आ..

गोपी हसू लागला.

गोपी - पागल है तू! आदमीने छुवी हुवी चिडियाको उसके जातवाले अपनेमे लेते नही.. उसे मार डालते है.. मै वहा गयी तो मुझे मार देंगे.. वो खुद यहां क्या आयेंगे?? उनके लिये ये जान देनेसे बदतर जगह है..

साहू - तो.. शालनदीदीभी तो यही कहरही थी..
गोपी - तू फर्क समझेगा नही अभी! शालन ये कहती है वो इसलिये की वो एक औरत है.. औरत को घरबार, बच्चेवच्चे.. ये सब चाहिये होता है.. इज्जत चाहिये होती है.. छक्केको ये सब नही मंगता.. उसको चाहिये होता है खाना. पेटभरके.. क्युंकी वही नही मिलता उसको.. देखा है कभी?? कोई छक्का बहोत आमीर है?? हां! बहुतसे आमृ छक्के जरूर होते है.. लेकिन.. लगता नही..

साहू - तो... ये अच्छी जगह है?
गोपी - तेरे लिये नही.. मेरे लिये अच्छी है..

बराच वेळ साहू समोरच्या मोठ्या दगडाकडे पाहात होता. गोपीने फेकलेला एक अन एक छोटा खडा बरोब्बर त्या दगडावर बसत होता. नशीबाच्या बाबतीत निशाणे मात्र चुकले होते. साहूने हळूच पाहिले.. गोपीचे डोळे किंचित ओलावले होते अन त्याने ते डाव्या करंगळीने टिपले होते...

रडायची परवानगी नाही बरं बुधवारात? कायम स्वागतासाठी हसावे लागते? सुखाच्याही आणि दु:खाच्याही!

बुधवार पेठ! साहूवर रोज एकेक नवनवे वेष्टन चढवत होती.

हळूच साहू उठला. चालत चालत गल्लीच्या दुसर्‍या बाजूला निरुद्देश जाऊ लागला.

'रात का राजा'!

या नावाच्या अत्यंत जुनाट आणि घाणेरड्या वाड्याच्या तितक्याच अरुंद प्रवेशद्वारावरून जाताना थबकन थबकला.

"मुझे बाहर निकालो भैय्या.. बाहर निकालो मुझे.. निकालो ना बाहर... "

काय झाले असेल तिचे? साहूने थबकून दाराकडे पाहिले. दारातील चार मुलींपैकी एक त्यातल्यात्यात प्रमुख असावी. झिरझिरीत साडी, खराखुरा गोरापान रंग, अती मेकअप आणि ठसठशीत चेहरा व त्यावरील रोखून बघणारे मिश्कील डोळे! गिर्‍हाईकाने पुन्हा मान वर करून पाहिलेच नाही पाहिजे.

साहू थांबलेला बघून बाकीच्या तिघी हासल्या. कालचा प्रसंग त्यांना आठवत होता. डिस्कोच्या रेश्माचा मुलगा असल्याने जास्त टिंगल होणे शक्य नसले तरीही हसू आवरणे शक्य नव्हते. ती लीडर मुलगी मात्र हसत नव्हती. ती स्वतःच्याच कंबरेवर एक हात ठेवून ठसक्यात दारात उभी राहून एखाद्या विदुषकाकडे पाहावे तसे मिश्कीलपणे पाहात होती.

तिचे नाव होते रेखा... कथेच्या सुरुवातीला ज्या मुलीवर पैसे चोरल्याच्या आरोपाबाबत चौकशी म्हणून साहूला आत घेतले होते ती रेखा...

रेखा म्हणजे नुसते आव्हान! डोळ्याला डोळा भिडवणे शक्य होऊ नये असे! आणि.. आयुष्यात प्रथमच साहू त्या मुलीच्या दर्शनाने अक्षरशः खिळला होता. इतर कुठल्याही मुलीबाबत आजवर त्याला तसे वाटले नव्हते. अगदी शालनदीदीला 'तसे' पाहूनही इतर कोणत्याही मुलीबाबत त्याला असे वाटत नव्हते. पण इथे मात्र जे डोळ्यात डोळे मिसळले ते निघेचनात! रेखासाठी ही आंखमिचौली अगदीच किरकोळ होती. रेखा ही अत्यंत चलाख मुलगी होती. होती एकोणीस वर्षांचीच! पण 'रात का राजा' या वाड्याची स्पेशालिटी तरुण मुली असल्यामुळे रेखा तिथे वयाच्या चवदाव्या वर्षापासूनच होती. पाच वर्षे लालन या मौसीचे छळ केल्यानंतर ती आता इतकी मुरलेली होती की तिच्या कोवळ्या वयाकडे पाहून आलेला माणूस तिच्या नुसत्या डोळ्यांकडे बघूनच वचकायचा! त्यात तिच्या त्या तीन मैत्रिणी तिच्या हुकुमात असल्याप्रमाणे वागायच्या! त्यामुळे उलट्या बाजूने या गल्लीट शिरलेल्या नवख्या माणसाला पहिल्यांदा 'रात का राजा' या वाड्याच्या प्रवेशद्वारातून जबरदस्त टिंगल करून घ्यावी लागायची. एखादा अगदीच पांडबा असला तर आत ओढलाही जायचा. जाताना हसत जायचा अन येताना रडत यायचा! जन्म मृत्यूच्या उलटा प्रकार होता लालनचा 'रात का राजा' हा वाडा!

रेखा - क्या होना?

साहूने खाली मान घालून नकारार्थी मान हालवली.

रेखा - बैठना है?

पुन्हा सगळ्या हसायला लागल्या.

रेखा - आईये ना सेठ!

साहू पुढे जायला लागला तसे रेखाने त्या तीन मुलींना त्याला धरून ठेवायला सांगीतले अन त्यांनी त्याला हसत हसत धरल्यानंतर ती त्याच्या समोर आली. तिच्या चीप अत्तराच्या वासाने अन इतक्या जवळ आल्यामुळे क्षणभर साहूला गरगरलेच!

रेखा - लडकी देखी नही कभी?
साहू - ... देखी है..
रेखा - देखी है?? बाहरसे या अंदरसे?
साहू - ....बाहरसे..
रेखा - अंदरसे देखनी है??
साहू - ... नही.. छोडो मुझे.. मां को बताऊंगा...

जोरदार हशा झाला.

रेखा - तेरे मां को जानती हूं मै.. मुझे कुछ नही बोलेगी वो.. आ अंदर..
साहू - नही.. छोडो..
रेखा - तो.. इधर क्युं खडा था?

महत्वाचा प्रश्न आत्ता आला संवादात!

रेखा - बोल ना प्यारे.. ???

रेखाने बोलता बोलता डायरेक्ट त्याच्या ओठांवर आपले ओठ टेकवल्यावर साहूने काय झाले आहे हे समजताच मान झटकली अन शर्टच्या बाहीला ओठ पुसले.

रेखा - नाराज हुवा??

मुली हसतच होत्या. आता एक दोन बघेही जमा झाले.

रेखा - अब बोल किसलिये खडा था नही तो लालनबाईके पास ले जाउंगी मै तुझे...
साहू - .. कुछ नही.. वो.. कल .. यहां .. एक लडकी को अंदर पकडके ले गये थे.. उसका क्या हुवा?

अचानक मुलींचे हात सुटले. ग्रूप एकदम गंभीर झाला. क्षणभरच रेखाच्या डोळ्यात दटावणीचे भाव आले अन मग परत मिश्कील!

रेखा - उसके साथ बैठने आया? .. वो अभी शुरू नही की है बैठना.. तुझे बुलावा भेजुंगी हां राज्जा.. जबभी वो बैठने लगेगी.. जा अब.. नही तो मां गुस्सा होजायेगी..

गंभीर प्रश्नाने पुन्हा मिश्कील स्वरूप धारण केल्यावर मुली जरा कंफर्टेबल झाल्या. पुन्हा हसू लागल्या. मात्र! साहूला या मुलींनी धरले आहे हे लांबून पाहणारा गोपी लगबगीने तेथे धावला होता.

गोपी - क्या री रेखा.. क्या हो रहा है..
रेखा - बच्चा बैठने आया है गोपी.. ले जाऊं अंदर???
गोपी - फिर **** है क्या उस दिन जैसी? रेश्माका बेटा है..
रेखा - माहितीय माहितीय.. तुला काय तिचं एवढं प्यार रे? हा स्वतःच थांबून बघत होता..
गोपी - क्या रे साहू?? तू इधर रुकगया था??
रेखा - त्यात काय? रोजच फिरतो की गल्लीत?
गोपी - तू चूप! साहू? तू इधर आके खडा हुवा था?
साहू - हां!
गोपी - क्युं?
साहू - वो.. अंदरसे देखना था.. वाडा कैसा है..

गोपी हसायला लागला. मुली साहूची कोलांटी पाहून नवल करत होत्या.

गोपी - तो मै दिखाती हूं ना.. चल.. चल अंदर.. ए रेखा.. रास्ता दे.. तेरा कस्टमर नही आया है..

रेखा अन सगळ्याच मुली गोपी या व्यक्तीपुढे जरा जपूनच वागायच्या. नाही म्हंटले तरी त्यांच्यापेक्षा कितीतरी जुनाही होता तो अन डिस्कोवरचाही होता!

अत्यंत अंधार्‍या अन घाणेरड्या वाड्यात प्रवेश केल्यावर साहूला किळसच आली. आपले डिस्को याहून कितीतरी चांगले आहे हे त्याला जाणवले. सगळीकडे मुलीच मुली दाटीवाटीने उभ्या होत्या.

अनेक अंधारे बोळ पार केल्यावर एका खोलीपाशी जरा जास्तच झगमगाट दिसला. गोपीने साहूला तिथे नेले. ती कालची मुलगी कुठेच दिसत नव्हती. मात्र... त्या खोलीत 'रात का राजा'ची राणी बसलेली होती.

लालन! लालनबाई! डोळ्यांत अत्यंत क्रूरभाव.. तोंडात सतत गुटखा आणि.. अंगावर साडी नाहीच.. तशीच पलंगावर आरामात बसलेली... साहूला तिचे ते बेढब शर्र पाहून पळून जावेसे वाटू लागले..

लालन - गोपी?? तू? ये रेश्मा का बेटा है ना??
गोपी - हां! साहू.. पहली बार आया इधर! देखना चाहता था.. वाडा...
लालन - आ बेटा.. चाय पियेगा?? ए मंजुळा.. चा बोल तीन..
साहू - चाय नही.. नही पीता मै चाय..
लालन - अच्छा.. बोल.. कैसा लगा वाडा??/
साहू - वो.. वो लडकी... कहां है??

अजाण साहूने उत्साहाच्या भरात नको तो प्रश्न विचारला होता. साहू लहान असला तरी बाहेर कुठे पचकला तर 'रात का राजा' वर रेड पडू शकली असती..

लालनबाई क्षणात भयंकर गंभीर झाली. गोपी हादरून साहूकडे पाहू लागला.

लालन - कौनसी लडकी बे??

लालनबाईच्या स्वरातील धग गोपीला व्यवस्थित जाणवली होती..

गोपी - अरे कोई नही? वो बाहर खडी है.. इसको दिखीही नही.. रेखा..

लालन - रेखाकी बात नही कररहा है ये लडका..

लालनच्या स्वरात वाढते गांभीर्य होते...

गोपी - तो? साहू? रेखाकीही.. बा...
साहू - नही.. वो ... कलकी लडकी.. जो.. पुकार रही थी.. बाहर निकालो.. बाहर निकालो..

खर्रकन गोपीचा चेहरा उतरला. लालनसमोर त्याने मान खाली घातली. एकमेकांच्या प्रकरणात लक्ष घालायचे नसते हा बुधवार पेठेतील पहिला धडा होता. आणि साहू हा धडा शिकलेलाच नव्हता दहा वर्षात!

अत्यंत थंड पण अत्यंत भीतीदायक अन विद्रूप चेहरा करून लालन म्हणाली..

लालन - चिमटा है मेरे पास एक.. जो लडकिया जादा बाते करती है या जिनकी बाते मुझे पसंद नही आती.. उनकी जुबान मै खीच लेती हूं उस चिमटेसे.. तेरी भी जबान चलती है.. रेश्मासे डरनवालोमे 'रात का राजा' नही है.. जुबान कटजायेगी नेहा का नाम दुबारा आया जुबानपर तो.. समझा???

गोपीने अत्यंत गंभीर चेहरा करून जवळपास ओढतच साहूला बाहेर काढले. जाताना रेखाने पुन्हा केलेली थट्टा अन पुन्हा हसलेल्या मुलींकडे साहू अन गोपी कुणाचेच लक्ष नव्हते.

आणि डिस्कोकडे परत जात असतानाच प्रचंड खळबळ माजली.. डिस्कोमधेच..

शालन धावत बाहेर आली होती आणि श्रीकृष्ण टॉकीजकडे गेलेल्या गजूला कर्कश आवाजात हाका मारत होती...

शालन - गजू.. ए गजू.. संगीता जलगयी.. जा.. अ‍ॅम्ब्युलन्स बुला के ला.. और पुलीस भी..

गुलमोहर: 

बेफिकिर...खासच तुमची लेखणी......पोटाची खळगी भरण्यासाठी काय काय करायला लागते..

watach pahat hote....nehmi pramanech zakas....farach sundar shaili ahe aapli.....

maay boli war navin ahe...marathi tun lihinyachi practise chalu ahe....

Happy

काटा आला वाचुन सगळं...पण वाचताना प्रत्येक भागात प्रचंड धक्कादायक काही असल्याची तयारी असतेच ही कथा सुरू झाल्यापासुन..त्यामुळे.. Sad येऊदे पुढचा भाग..

विदरक सत्य...

Truth is stranger than fiction, but it is because Fiction is obliged to stick to possibilities; Truth isn't.
Mark Twain