टी आर पी- अर्थात "टांगत राहिलेली पिरपिर"

Submitted by संतोष सराफ on 30 March, 2015 - 02:28

टी आर पी

प्रतिष्ठित लेखकू |
वाहिन्यासी आधारू |
मालिकांचा प्रसवू |
कर्तव्य योगी ||

रटाळ कथांचा स्वामी |
कल्पना अतिपुरोगामी |
सुचती उचापत्या नामी |
उगा कारणे ॥

आशयाच्या भराऱ्या प्रचंड |
घडवितो नाना कांड |
अंतिमत: ते थोतांड |
सिद्ध होतसे ||

घेउनिया अतिसुंदर तरुणी |
छळवीतसे नानाकारणी |
भलत्याच गेंड्याच्या चरणी |
सोडतसे ||

अत्यंत दुर्गुण संपन्न |
हीनांहूनही हीन |
प्रवेशती एकामागोमाग |
खालनायके ||

कधी नवीनच कथानक आणी |
एक होता चिमणा; पण कावळी 'काणी' |
अन् जुन्याच बाटलीतली जुनीच वारुणी |
वाद जनांचा ||

कधी कथा असे आखूड |
संपते तयातील गूढ |
उपकथानकांचे धूड |
जोडी त्या ||

अति लांबत जाई मूड |
मग नसे तयाला बूड |
प्रेक्षकांवर उगवी सूड |
पूर्वजन्मिचा ||

मग कथा सुटे बेछूट |
मारुतीचे जणू शेपूट |
येउद्या कितीही वीट |
थांबत नसे ||

मग काळ कसा मोजावा |
अन अनंत कुठे जाणावा |
संभ्रमात पडे हा मनवा |
आईनस्टाइनचाही ||

कुंकू असो वा पाउल |
एकाच जन्माची चाहूल |
यमलोकालाही हूल |
देतसे ||

जन म्हणती हा तर वेडा |
पण याचाच पडे तो बेडा |
देवहो यातुनी सोडवा |
आम्हालागी ||

देवांनाही मग चिंता |
कोणी सोडवाल का गुंता |
हैराण झाली हो जंता |
याच्या कारणे ||

मग एके सायंकाळी |
रिमोट घेउनी जवळी |
बदलली च्यानल ची कळी |
लगोलग ||

अशी आईडीयाची कल्पना |
तरीही समजे ना या जना |
उगा करिती ठणाणा |
मालिकांच्या नावे ||

असंतोष सराफ

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