गझल

Submitted by मीनल कुलकर्णी on 30 January, 2017 - 04:39

हम चेहरे पढ लेते थे कभी
किताबोंकी तरह.....

हम चेहरे पढ लेते थे कभी
किताबोंकी तरह.....
हर मुस्कुराहटमे छुपे
सवालोकी तरह...
चेहेरे की एक झुर्री
सारी कहानी बता देती...
आखोंकी नमी जागी रात की
निशानी बता देती....
मुलाकात को लब्जोकी
जरुरत ही न थी कभी
उनका पलके उठनागिरना
था जवाबोंकी तरह...
हम चेहरे पढ लेते थे कभी
किताबोंकी तरह......
चेहेरेकी सिलवटोंमे
छुपा लेते थे वो राज कई
हमसे नजरे चुराने के
उनके अंदाज कई
उनके सामने रहनेकी
इजाजत न थी हमे
फिरभी बस जाते थे पलकोमें
हम ख्वाबोंकी तरह....
हम चेहरे पढ लेते थे कभी
किताबोंकी तरह....
वो दाँतोतले उंगली दबाना..
बेवजह जुल्फोंको सवारना..
उनकी हर अदामे हजार
बाँते होती थी....
हम याद करते थे उन्हे
दिवानोंकी तरह....
हम चेहरे पढ लेते थे कभी
किताबोंकी तरह...
इस बातको अब
एक जमाना गुजर गया...
उनकी आँखोमे आजभी
वो दर्द पुराना उतर गया...
आजभी होठोंने
उनके चुपी साधी थी...
पढना चाहता था
वो बात जो कभी आधी थी...
उनके चेहरे की
किताब के सारे पन्ने खुले थे...
बस पढ ना पाया वो शब्द
जो शायद वक्त के साथ
हो गये धुंदले थे....
बिलकुल मेरी आँखोंकी तरह...
हम चेहरे पढ लेते थे कभी
किताबोंकी तरह....
- मीनल

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