एकाच भावार्थावर/भावभूमीवर/प्रतिमेवर आधारीत दोन-दोन/तीन शायरांचे शेर......

Submitted by कर्दनकाळ on 7 May, 2013 - 16:12

एकाच भावार्थावर/भावभूमीवर/प्रतिमेवर आधारीत दोन-दोन/तीन शायरांचे शेर......

यहॉ दरख्तोंके सायेमें धूप लगती है
चलो यहॉसे चले और उम्र-भरके लिए
..........दुष्यंत कुमार
तमाम उंचे दरख्तोंसे बचके चला हूं
मुझे खबर है कि साया किसीके पास नही
..........मुमताज शकेब
झाडे चहूकडे पण, छाया कुठेच नाही!
गर्दीत माणसांच्या माया कुठेच नाही!!
..........कर्दनकाळ

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वो शख्स जिसको खिजॉ ले गई बहारोंसे
कभी चमनमें शिगुफ्ता गुलाब जैसे था
...........नसीम महमूदी
सदियोंमें फैलनेकी तमन्ना लिए हुए
क्या शख्स था जो खो गया लम्होंकी भीडमें
.........इर्फान दानिश
नकोस माझी पुसू खुशाली कळीकळीला......
विचार माझा ठावठिकाणा पानगळीला!
............कर्दनकाळ

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3
मै उन गहराइयोमें हूं जहॉ अब
समुंदर भी किनारा हो गया है
............कालिदास गुप्ता रजा
हमारी तश्नगीसे लडते लडते
समुंदर बूंद भर का रह गया है
...........तसव्वुर हुसेन जैदी
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गोदमें कलतक परिन्दोंको लिए फिरती रही
वो हवा सआन इनके आशियाने ले गई
..........हसन अकबर कमाल
यही हवा मेरे सीनेसे लगके रोती है
इसीका हाथ दीये भी मेरे बुझाता है
.........असद बदायूनी
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हर एहतियात करके भी जख्मी है उंगलियॉं
फूलोंकी आरजूका नतीजा बुरा हुआ
..............बिस्मिल्लाह अदीम
जख्मी हर एक शाखपे कर ली उंगलियॉं
दो फूल भी न तोड सके हम बचाके हाथ
............अली अहमद जलीली
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अच्छा हुआ कि आईना हाथोंसे गिर गया
मुझको तो अपनी शक्लपे धोका खुदाका था
.............अंजुम मजहरी
छुपाके रख दिया इस आगाहीके शीशेको
इस आईनेमें तो चेहरे बिगडसे जाते है
.........................किश्वर नाहीद
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दी है दस्तक तो कोई सुबहके सूरजसे कहे
जो न सोया है उसे आके जगाता क्या है
...............कमर इकबाल
‘अजहर’ यहॉ है अब मेरे घरका अकेलापन
सूरज अगर न हो तो जगाता नहीं कोई
...............अजहर इनायती
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आ मेरी तरह कभी समुंदरमें उतर
यूं किनारोंसे न मालूम ये गहराई कर
..............मुहासिन एहसान
मुझको पाना है तो फिर मुझमें उतरकर देखो
यूं किनारोंसे समुंदर नहीं देखा जाता
..............रजी अख्तर शौक
समुद्री दोन डोळ्यांच्या किती भंडावती लाटा....
किनारी थांबणा-याला कधी उमगायचे नाही!
..............कर्दनकाळ

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जिन्दगी हमसे तेरे नाज उठाये न गये
सॉंस लेनेकी फकत रस्म अदा करते थे
.............शाज तमकनत
जिन्दगी यूं मेरे हमराह रहां करती है
जैसे जीनेकी फकत रस्म अदा करती है
.............अली अहमद जलीली
हाय आले जीवनाचे भान मरताना!
श्वास घेण्याचेच केले काम जगताना!!
.................कर्दनकाळ

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१०
सब एक नजर फेंकके बढ जाते है आगे
मैं वक्तके शो-केसमें चुपचाप खडा हूं
.......................नजीर बनारसी
जौहर-शनास कोई तो आयेगा इस तरफ
खुद को सजा के बैठ गया हूं दुकानमें
...................मसरूर लखनवी
जीवाश्म मी! जणू मी, तो काळ, लोटलेला!
क्षण एक एक माझ्या हृदयात गोठलेला!!
..................कर्दनकाळ

का मला पाहून सारे लोक परतू लागले हे?
ओसराया लागलेला मी नदीचा पूर नाही!

.................कर्दनकाळ
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टीप: हिंदी टायपिंग अजून जमत नसल्याने ब-याच ठिकाणी शुद्धलेखनाच्या चुका आहेत! क्षमस्व!

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